"सूनी हो गयी शहर कि गलियाँ , कांटें बन गए बाग कि कलियाँ
कहते हें सावन के झूले , भूल गया तू हम नहीं भूले II
डोली में जब बैठी बहना
रास्ता देख रहे थे नैना II
मैं तो बाप हूँ , मेरा क्या हें , तेरी माँ की हाल बुरा हें
आजा उम्र बहत हें छोटी , अपने घर में भी हें रोटी
.....चिट्ठी आई हें बतन से चिट्ठी आई हें II"
....न जाने कौन सी मजबूरी हें जो पिताओं ने बच्चों से अपनी जज़बात हमेशा छुपाया हें I दिल मजबूर करता हें तो पत्नी के दुहाई देकर बेटे को घर आने का पैग़ाम भेजता हें I ...और इसी सिलसिले में ममता की दुनिया में उनका नाम अनलेखा रह जाता हें I बच्चों की चारों ओर एक ढाल बन कर जी जाता हें वो, के एक काँटा भी न घूँस पाये इस चक्र्ब्युह में I अपनों के लिए हर ग़म को पी लेता हें वो बेगैर जाहीर किए कोई लकीर पेशानी में I सिने में दफन किए अपने दर्द ओ ज़ख्म को, चले जाते हें बीमार बच्चों के पास, एक तबस्सुम लिये चेहरों में ..........तो कोई कैसे समझे इनके जज़्बातों को ? अपनों की परेशानी में आंखों में कट देते हें तमाम रातें, पर अश्कजार हो कर उनको अपने सिने से लगाके नहीं रो पाता हें वो I नहीं कर पाता अपने प्यार का इज़हार नम आँखों से I
ये मजबूरी हें, कुर्बानी हें या कोई कुदरत का मज़ाक - के ममता के दुनिया से पिताओं ने अपने अस्तित्व ही मिटा देते हें !
आखिर क्यों रोता नहीं हें बाप ?